अभी कुछ दिनों पहले नेहरू-गाँधी परिवार के एक लड़के को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे NSA (रासुका ) लगा कर जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया। कांग्रेस के कुछ लोगों ने यहाँ तक कह दिया कि बेटा अपने पिता के ही सामान है। यह वही लोग हैं जो संजयजी के सामने उनकी खुशामद करते नहीं अघाते थे। राजीव गाँधी की हत्या करने वाले संगठन लिट्टे की पैरवी में वाइको ने जो भी कल और इससे पहले कहा वह सब इस देश को स्वीकार्य है। पीराभाकरन (प्रभाकरन) एक अलगाववादी आतंकवादी है और यदि भारत की सरकार उसका समर्थन करती है तो वह किस सदाचार की दुहाई दे कर से काश्मीर के या दूसरे बहुत से अलगाववादी गुटों के विरुद्ध निर्णायक नीतियाँ ले कर कार्यवाही कर सकेगी और कैसे संसार के समक्ष अपना दुखड़ा रो सकेगी? पर वाइको रासुका के लिए सही अभ्यर्थी नहीं हैं। राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के समय उनके सर पर इनाम की घोषणा करना भी शायद कांग्रेस को भारत के हितार्थ लगा होगा जिस से घोषणा करने वाले के लिए भी रासुका उचित नहीं बैठा और न ही किसी और कानून के तहत कोई कार्यवाही की गई। ऐसे लोग अब लोक सभा के लिए उम्मीदवार हैं। और जिस लड़के ने किसी जाति या धर्म विशेष के लोगों या किसी स्थान या प्रान्त विशेष के लोगों या किसी नागरिक विशेष के विरुद्ध टिप्पणी न करके कुछ कहा और जिसका केवल अपने धर्म की रक्षा ही विषय था तथा देश विरोध कहीं नहीं था, उसके लिया रासुका को ठीक समझा गया और देश में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई पड़ी। भारत का बुद्धिजीवी समाज अब विचारों और भाषण के स्वातंत्र्य का पक्षधर नहीं रह गया जो हुसैन द्वारा सनातन धर्म को अपमानित किए जाने पर उसकी ज़बरदस्त पैरवी करता नज़र आता था। अब अचानक बुद्धिजीवियों को सांप क्यों सूंघ गया? क्या दमन चक्र की राजनीति अब भारत के बुद्धिजीवियों को उद्वेलित नहीं करती? और क्या दमन से राज्य धर्म का सही निर्वाह हो सकेगा?
क्या हम सेकुलर नहीं हैं? क्या सर्व धर्म समभाव में इस देश की आस्था नहीं है? क्या सनातन धर्म पर आघात करना ग़लत नहीं हैं और बुद्धिजीवियों का केवल और एकमात्र प्रिय शगल है? क्या उसके बचाव की बात करना राष्ट्रीय संकट को बुलावा देना है?
मैं किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाए जाने का हामी नहीं हूँ। इन समुदायों में सनातन धर्मानुयायी भी एक हैं। उनकी भावनाओं का भी सम्मान होना चाहिए। वरुण ने यदि किसी समुदाय के विरुद्ध कुछ कहा है तो वह अनुचित हो सकता है पर जो टीवी क्लिप्स दिखाए गए हैं उनमे ऐसा सामने नहीं आया। मैं न्याय का पक्षधर हूँ और ऐसा मानता हूँ की न्याय सभी के लिए एक सा होना चाहिए। ऐसा न होने से देश में अनचाही और विघटनकारी प्रतिक्रियाएं होती हैं और लोगों के बीच आपसी मनमुटाव को बढ़ावा मिलता है। हम क्यों सम भाव हो कर न्याय नहीं करते? हम क्यों समाज के किन्ही तबकों को इतना patronise करते हैं, चाहे उन्हें अल्पसंख्यक कहके ही क्यों न या उनके भले की दुहाईयाँ दे के ही क्यों न सही, कि उनमें हम हीन भावना ही भर दें? क्या उनके आत्मसम्मान का भी हमें विचार नहीं करना चाहिए? क्या अवसरवादिता की अंधी दौड़ में राष्ट्रीय हितों का कोई स्थान नहीं रहा गया है? क्या राजनेताओं ने राष्ट्र को अन्दर से खोखला करने का ही बीड़ा उठा रखा है? तो फिर वे राज किस पर करेंगे? राष्ट्रीय एकता तार - तार हुई जा रही है और हर छोटी बात का बवंडर बन जाता है जब की देश की असली समस्याओं को समझने और इनसे जूझने की इच्छा शक्ति पूरे राजनितिक प्रतिष्ठान और शासन तंत्र में कहीं नज़र नहीं आती। कुर्सी की अंधी दौड़ या उस पर आसीन होने की मदान्धता के कारन राजनीतिकों ने देशवासियों को इतना विभाजित कर दिया है कि कई बार मैं अपने उस भारत के लिए तरस जाता हूँ जिसका दर्शन कभी मुझे अपने अलीगढ में और मेरी मादर-ऐ-इल्म अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ६० के दशक में होता था। असल में अब वहां भी सब कुछ बदल गया है। क्या हमारा भारत हमसे कहीं खो गया है?
मैं सोचता हूँ। सभी के लिए यह विचारणीयहै।
क्या हम सेकुलर नहीं हैं? क्या सर्व धर्म समभाव में इस देश की आस्था नहीं है? क्या सनातन धर्म पर आघात करना ग़लत नहीं हैं और बुद्धिजीवियों का केवल और एकमात्र प्रिय शगल है? क्या उसके बचाव की बात करना राष्ट्रीय संकट को बुलावा देना है?
मैं किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाए जाने का हामी नहीं हूँ। इन समुदायों में सनातन धर्मानुयायी भी एक हैं। उनकी भावनाओं का भी सम्मान होना चाहिए। वरुण ने यदि किसी समुदाय के विरुद्ध कुछ कहा है तो वह अनुचित हो सकता है पर जो टीवी क्लिप्स दिखाए गए हैं उनमे ऐसा सामने नहीं आया। मैं न्याय का पक्षधर हूँ और ऐसा मानता हूँ की न्याय सभी के लिए एक सा होना चाहिए। ऐसा न होने से देश में अनचाही और विघटनकारी प्रतिक्रियाएं होती हैं और लोगों के बीच आपसी मनमुटाव को बढ़ावा मिलता है। हम क्यों सम भाव हो कर न्याय नहीं करते? हम क्यों समाज के किन्ही तबकों को इतना patronise करते हैं, चाहे उन्हें अल्पसंख्यक कहके ही क्यों न या उनके भले की दुहाईयाँ दे के ही क्यों न सही, कि उनमें हम हीन भावना ही भर दें? क्या उनके आत्मसम्मान का भी हमें विचार नहीं करना चाहिए? क्या अवसरवादिता की अंधी दौड़ में राष्ट्रीय हितों का कोई स्थान नहीं रहा गया है? क्या राजनेताओं ने राष्ट्र को अन्दर से खोखला करने का ही बीड़ा उठा रखा है? तो फिर वे राज किस पर करेंगे? राष्ट्रीय एकता तार - तार हुई जा रही है और हर छोटी बात का बवंडर बन जाता है जब की देश की असली समस्याओं को समझने और इनसे जूझने की इच्छा शक्ति पूरे राजनितिक प्रतिष्ठान और शासन तंत्र में कहीं नज़र नहीं आती। कुर्सी की अंधी दौड़ या उस पर आसीन होने की मदान्धता के कारन राजनीतिकों ने देशवासियों को इतना विभाजित कर दिया है कि कई बार मैं अपने उस भारत के लिए तरस जाता हूँ जिसका दर्शन कभी मुझे अपने अलीगढ में और मेरी मादर-ऐ-इल्म अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ६० के दशक में होता था। असल में अब वहां भी सब कुछ बदल गया है। क्या हमारा भारत हमसे कहीं खो गया है?
मैं सोचता हूँ। सभी के लिए यह विचारणीयहै।
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