Monday, April 6, 2009

चुन्नू और मुन्नू पढ़ते नहीं थे। उनके लिए ट्यूशन रखा गया। कई ट्यूटर उनकी शैतानियों से हार कर मैदान छोड़ चुके थे। नए ट्यूटर समझदार थे और उन्होंने इन लोगों को खेलने में लगाया क्यूंकि यह पढ़ने को तो तैयार थे ही नहीं। वे उन्हें खेल के मैदान में ले गए। वहां कुछ कबूतर बैठे थे। गिनने पर वे आठ थे। मास्टरजी ने कंकड़ फेंका और दो उड़ गए। उन्होंने चुन्नू-मुन्नू से पूछा बताओ आठ में से दो कबूतर उड़ गए तो कितने बचे? चुन्नू ने फ़ौरन मुन्नू से कहा "बतइयो मत, यह हमें खेल - खेल में पढ़ा देंगे।"

ऐसे surrogate तरीकों से भी किनही धर्मों का प्रचार प्रसार हो रहा है। आप ध्यान या अन्तरावलोकन या अन्तः दर्शन को विपश्यना जानते हैं। योग की पुरानी और जानी मानी पद्धतियाँ नई पैकेजिंग में लुभावनी लगती हैं। सनातन धर्मियों को ऐसे भगवानों के कीर्तनों को fashionable बना कर प्रस्तुत किया जाता है जो वैदिक धर्म के विरुद्ध सदा से सक्रिय रहे हैं। साधारण योगिक प्रक्रियाओं को किसी धार्मिक पद्धति से जोड़ कर पढ़े लिखे लोगों को stress busters के रूप में बेचा जाता है। उसे stress buster होने से ज़्यादा निर्वाण का मार्ग मान लिया जाता है। और फिर धीरे से उनकी कच्ची और अधकचरी आस्थाओं को भंग करके उनको दूसरे धर्म में परिवर्तित करने की भूमि तैयार हो जाती है।

खेल में, फैशन में, साथी-संगियों की सःअनुभूति और उनके स्वीकार्य के लिए बहुत से लोगों ने बिना यह जाने की वे क्या छोड़ कर क्या अपनाने जा रहे हैं दूसरे धर्मों को स्वीकारा है। मुझे इससे आश्चर्य होता है कि हम चुन्नू-मुन्नू से भी भोले बन जाते हैं और खेल-खेल में कुछ भी सीख या मान लेते हैं। अपनी सभ्यता, अपने धर्म, अपनी विरासत, अपने मूल्यों, अपने मत के संचित ज्ञान और दर्शन की लेशमात्र भी जानकारी लिए बिना हम यह कैसे जान सकते हैं कि हमारा trade-off क्या है?

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